दशरथकृत शनि स्तोत्र एवं कथा (Dashrathkrit Shani Stotra and Story)
दशरथकृत शनि स्तोत्र एवं कथा
(Dashrathkrit Shani Stotra and Story)
नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम्।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाभीष्टकरं वरेण्यम्।।
अर्थ: नीलमणि के समान कान्तिमान, हाथों में धनुष और शूल धारण करने वाले, मुकुटधारी, गिद्ध पर विराजमान, शत्रुओं को भयभीत करने वाले, चार भुजाधारी, शान्त, वर को देने वाले, सदा भक्तों के हितकारी, सूर्य-पुत्र को मैं प्रणाम करता हूँ।
बहुत पुराने समय की बात है, रघुवंश के राजा दशरथ बहुत प्रसिद्ध और ताकतवर राजा थे। वे पूरे सात द्वीपों के स्वामी थे।
एक दिन उनके राज्य में ज्योतिषियों ने बताया कि शनि ग्रह रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने वाला है। इसे "रोहिणी-शकट-भेदन" कहा जाता है। ज्योतिषियों ने समझाया कि अगर ऐसा हुआ तो देवता और असुर दोनों के लिए संकट होगा, और इसके बाद बारह साल का भयानक अकाल पड़ेगा।
राजा दशरथ ने यह बात सुनी और देखा कि नगर और गांवों के लोग बहुत परेशान हैं। वे सभी राजा से इस विपत्ति से बचाने की प्रार्थना करने लगे।
राजा ने ऋषि वशिष्ठ और अन्य विद्वानों से उपाय पूछा। वशिष्ठ जी ने कहा कि इस स्थिति में कोई भी देवता या इंसान शनि के प्रभाव को रोकने में सक्षम नहीं है।
यह सुनकर राजा ने सोचा कि अगर वे अपनी प्रजा को बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाए तो उन्हें कायर समझा जाएगा। उन्होंने साहस दिखाया और अपने दिव्य धनुष और बाण लेकर रथ पर सवार हुए।
राजा अपने तेज़ रथ को लेकर चाँद से भी ऊपर, नक्षत्र मंडल में पहुँच गए। वहाँ उन्होंने रोहिणी नक्षत्र के सामने अपना रथ रोक दिया। राजा दशरथ सफेद घोड़ों से सुसज्जित रथ में चमकते हुए एक दूसरे सूर्य जैसे दिखाई दे रहे थे।
जब शनि ने देखा कि राजा दशरथ बाण लिए उनके सामने खड़े हैं, तो वे थोड़ा डर गए। शनि ने राजा की बहादुरी की तारीफ की और कहा, "हे राजन, मैंने ऐसा पराक्रमी इंसान कभी नहीं देखा। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मुझसे वर मांगो।"
राजा दशरथ ने कहा, "हे शनि देव, अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मैं चाहता हूँ कि आप कभी भी रोहिणी-शकट-भेदन न करें। जब तक यह संसार है, तब तक मेरी यह प्रार्थना मानें।"
शनि देव ने कहा, "तथास्तु।" उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया कि उनके राज्य में बारह साल तक अकाल नहीं पड़ेगा, और उनका यश तीनों लोकों में फैलेगा।
राजा दशरथ ने प्रसन्न होकर शनि की स्तुति की और अपने धनुष-बाण को रथ में रखकर सरस्वती और गणपति का ध्यान किया। इस तरह राजा ने अपनी प्रजा को बचा लिया और उनका नाम अमर हो गया।
दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।
शनि देव का शरीर कृष्ण-नील (काले और नीले) रंग का है, जो भगवान शिव की तरह दिखाई देते हैं। वे संसार के लिए विनाशकारी अग्नि (कालाग्नि) के समान हैं। ऐसे शनिदेव को बार-बार प्रणाम।
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।
शनि देव का शरीर कंकाल जैसा है, मांसहीन है। उनकी बड़ी-बड़ी जटाएं और दाढ़ी-मूंछ हैं। वे भयानक रूप वाले और बड़े नेत्रों के स्वामी हैं। ऐसे शनि देव को नमस्कार।
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।
उनके शरीर का ढांचा विशाल है, और उनके शरीर के रोएं मोटे हैं। वे लंबे और दुबले हैं, और उनकी दाढ़ें काल जैसी हैं। ऐसे शनिदेव को प्रणाम।
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।
उनकी गहरी आंखें डरावनी हैं, जिन पर नजर डालना कठिन है। उनका रूप भयानक और डरावना है। वे कपाल धारण करने वाले हैं। ऐसे शनि देव को नमस्कार।
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।।
आपको नमस्कार है जो सभी चीजों का भक्षण करते हैं बालीमुखा आपको नमस्कार है, हे सूर्यपुत्र मैं आपको नमस्कार करता हूं जो सूर्य को अभय प्रदान करते हैं
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।।
नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक ! आपको प्रणाम है। धमी गति से चलने वाले शनैश्चर ! आपका प्रतीक तलवार के समान है, मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं.।
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।
शनि देव तपस्या से अपनी देह को जला चुके हैं। वे योग में लीन रहते हैं, फिर भी भूख और तृष्णा से पीड़ित रहते हैं। उन्हें बार-बार प्रणाम।
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।
वे ज्ञान चक्षु वाले हैं। यदि वे प्रसन्न होते हैं तो राज्य प्रदान करते हैं और क्रोधित होते हैं तो उसे छीन लेते हैं। ऐसे शनि देव को प्रणाम।
देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।
शनि की दृष्टि पड़ने पर देवता, असुर, मनुष्य और अन्य प्राणी नष्ट हो जाते हैं। हे शनि देव, कृपया प्रसन्न हों और सुरक्षा प्रदान करें।
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।
देव मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिवः।।
राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान् सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक हे राजा दशरथ '!
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत।
एवं वरं प्रदास्यामि यत्ते मनसि वर्तते।।
तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।।
दशरथ उवाच-
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्।
प्रसादं कुरु मे सौरे ! वरोऽयं मे महेप्सितः।।
राजा दशरथ बोले- ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।।
शनि उवाच:
अदेयस्तु वरौऽस्माकं तुष्टोऽहं च ददामि ते।।
त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये पठिष्यन्ति मानवाः।
देवऽसुर-मनुष्याश्च सिद्ध विद्याधरोरगा।।
शनि ने कहा- ‘हे राजन् ! यद्यपि ऐसा वर मैं किसी को देता नहीं हूँ, किन्तु सन्तुष्ट होने के कारण तुमको दे रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि बाधा नहीं होगी।
न तेषां बाधते पीडा मत्कृता वै कदाचन।
मृत्युस्थाने चतुर्थे वा जन्म-व्यय-द्वितीयगे।
गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु च।
यः पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यं वा शुचिर्भूत्वा समाहितः।।
जिनके गोचर में महादशा या अन्तर्दशा में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर सुबह, दोपहर और शाम के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।।
न तस्य जायते पीडा कृता वै ममनिश्चितम्।
प्रतिमा लोहजां कृत्वा मम राजन् चतुर्भुजाम्।।
वरदां च धनुः-शूल-बाणांकितकरां शुभाम्।
आयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमतः।।
कृष्णैस्तिलैः शमीपत्रैर्धृत्वाक्तैर्नीलपंकजैः।
पायससंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च होमयेत्।।
ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र स्वशक्तया घृत-पायसैः।
तैले वा तेलराशौ वा प्रत्यक्ष व यथाविधिः।।
पूजनं चैव मन्त्रेण कुंकुमाद्यं च लेपयेत्।
नील्या वा कृष्णतुलसी शमीपत्रादिभिः शुभैः।।
दद्यान्मे प्रीतये यस्तु कृष्णवस्त्रादिकं शुभम्।
धेनुं वा वृषभं चापि सवत्सां च पयस्विनीम्।।
मुझे यकीन है कि उन्हें पैदा (शनि की पीड़ा) नहीं झेलनी पड़ेगी। हे राजन मेरी चार भुजाओं वाली एक लोहे की मूर्ति बनवाओ, हाथो में धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो। इसके बाद दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र (दशरथकृत शनि स्तोत्र) का जप करें, जप का दशांश हवन करे, जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए। इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें। काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें।
एवं विशेषपूजां च मद्वारे कुरुते नृप !
मन्त्रोद्धारविशेषेण स्तोत्रेणऽनेन पूजयेत्।।
पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव कृताञ्जलिः।
तस्य पीडां न चैवऽहं करिष्यामि कदाचन्।।
रक्षामि सततं तस्य पीडां चान्यग्रहस्य च।
अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत्।।
हे राजन ! जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह कई प्रकार से मैं संसार की पीड़ा से मुक्त करता हूँ।